नाटक-एकाँकी >> पूर्व की ओर पूर्व की ओरवृंदावनलाल वर्मा
|
2 पाठकों को प्रिय 370 पाठक हैं |
प्रस्तुत नाटक में राजकुमार अश्व वर्मा की कथा है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महानाविक: ये अपने उस देवी चंडी के पास गए हैं। उसको लेकर बड़ी संख्या में
आवेंगे। संभव है, उन तीनों का बलिदान करके, खा – पीकर लौटें। यह
नाग
द्वीप नहीं है, नरक द्वीप है। मैं इसी नाम से पुकारता हूँ इसको। पानी को
उलीच डालो, अब बहुत नहीं है और अब चल दो।
[वे सब यान के नीचे जाकर पानी उलीचने लग जाते है। महानाविक ऊपर आता है और आँखें पसारता है।]
महानाविक: (कान लगाकर सुनता है। उसको दूरी पर कोलाहल सुनाई पड़ता है। कोलाहल को सुनकर, यान के भीतर की ओर मुँह करके) शीघ्र मेरे पट्ठो ! शीघ्र !
भीतर से: अब तो थोड़ा ही रह गया है।
[यान कुछ और ऊँचा उठता है। द्वीप के जंगलों में जलते लूघरों के प्रकाशबिंदु दिखलाई पड़ते हैं। बड़ी संख्या में द्वीप निवासी तट की ओर आ रहे हैं।]
भीतर से: सब पानी फेंक दिया !
महानाविक: डाँड़े पकड़ो। यान को तली से तुरंत छुटाओ ! अग्नि-समाधि से अपनी जल-समाधि बहुत भली। शीघ्र !!
प्रस्तुत नाटक में एक ऐसे राजकुमार अश्व वर्म्मा की कथा है, जो अपने पिता महाराज द्वारा देशनिकाला दिए जाने पर अपने कुछ साथियों सहित एक ऐसे द्वीप पर पहुँचता है जो अद्भुत है, कौतूहलपूर्ण है, रोमांचक है।
हमें पूर्ण विश्वास है, यह पुस्तक पाठकों का मनोरंजन तो करेगी ही, उनको अनेक ऐतिहासिक तथ्यों से भी अवगत कराएगी।
[वे सब यान के नीचे जाकर पानी उलीचने लग जाते है। महानाविक ऊपर आता है और आँखें पसारता है।]
महानाविक: (कान लगाकर सुनता है। उसको दूरी पर कोलाहल सुनाई पड़ता है। कोलाहल को सुनकर, यान के भीतर की ओर मुँह करके) शीघ्र मेरे पट्ठो ! शीघ्र !
भीतर से: अब तो थोड़ा ही रह गया है।
[यान कुछ और ऊँचा उठता है। द्वीप के जंगलों में जलते लूघरों के प्रकाशबिंदु दिखलाई पड़ते हैं। बड़ी संख्या में द्वीप निवासी तट की ओर आ रहे हैं।]
भीतर से: सब पानी फेंक दिया !
महानाविक: डाँड़े पकड़ो। यान को तली से तुरंत छुटाओ ! अग्नि-समाधि से अपनी जल-समाधि बहुत भली। शीघ्र !!
प्रस्तुत नाटक में एक ऐसे राजकुमार अश्व वर्म्मा की कथा है, जो अपने पिता महाराज द्वारा देशनिकाला दिए जाने पर अपने कुछ साथियों सहित एक ऐसे द्वीप पर पहुँचता है जो अद्भुत है, कौतूहलपूर्ण है, रोमांचक है।
हमें पूर्ण विश्वास है, यह पुस्तक पाठकों का मनोरंजन तो करेगी ही, उनको अनेक ऐतिहासिक तथ्यों से भी अवगत कराएगी।
नाटक के पात्र
पुरुष पात्र
वीरवर्म्मा: धान्यकटक का राजा – उपाधि पल्लवेंद्र
अश्वतुंग: वीरवर्म्मा का भतीजा
गजमद:अश्वतुंग का साथी विदूषक
जयस्थविर: नागार्जुनी कोंडा (श्री पर्वत) के एक विहार का तांत्रिक बौद्ध भिक्षु
चंद्रस्वामी: श्रेष्ठी और व्यापारी, प्रतिष्ठान प्रदेश का निवासी और ललयान का स्वामी
अवंतिसेन: महानाविक, जलपोत का संचालक
कंदर्पकेतु: धान्यकटक का एक धनाढ़्य व्यापारी
जिष्णु: मगध का एक निर्वासित नागरिक, जो नादद्वीप में रहने लगा था मंत्री, भट्टनागर, दंडनायक, नाविक, माझी, द्वारपाल, योद्धा, नागद्वीप के निवासी, वारुणद्वीप के निवासी इत्यादि।
अश्वतुंग: वीरवर्म्मा का भतीजा
गजमद:अश्वतुंग का साथी विदूषक
जयस्थविर: नागार्जुनी कोंडा (श्री पर्वत) के एक विहार का तांत्रिक बौद्ध भिक्षु
चंद्रस्वामी: श्रेष्ठी और व्यापारी, प्रतिष्ठान प्रदेश का निवासी और ललयान का स्वामी
अवंतिसेन: महानाविक, जलपोत का संचालक
कंदर्पकेतु: धान्यकटक का एक धनाढ़्य व्यापारी
जिष्णु: मगध का एक निर्वासित नागरिक, जो नादद्वीप में रहने लगा था मंत्री, भट्टनागर, दंडनायक, नाविक, माझी, द्वारपाल, योद्धा, नागद्वीप के निवासी, वारुणद्वीप के निवासी इत्यादि।
स्त्री पात्र
धारा: जिष्णु की पुत्री
तूंबी: नागद्वीप की पुत्री
गौतमी: कंदर्पकेतु की पुत्री
नागद्वीप वासिनी स्त्रियाँ
स्थान: धान्यकटक, नागार्जुनी कोंडा, प्रतिष्ठान, नागद्वीप और वारुणद्वीप।
समय: तीसरी शताब्दी के अंत के लगभग।
तूंबी: नागद्वीप की पुत्री
गौतमी: कंदर्पकेतु की पुत्री
नागद्वीप वासिनी स्त्रियाँ
स्थान: धान्यकटक, नागार्जुनी कोंडा, प्रतिष्ठान, नागद्वीप और वारुणद्वीप।
समय: तीसरी शताब्दी के अंत के लगभग।
पहला अंक
पहला दृश्य
[स्थान: श्री पर्वत (नागार्जुनी कोंडा) के लिए वनपथ। नागार्जुनी कोंडा
यहाँ से अभी थोड़ी दूर है। कंदर्पकेतु अपनी पुत्री गौतमी के साथ आ रहा है।
कंदर्पकेतु की अवस्था लगभग पचास वर्ष की है। उसके गले में स्वर्ण की माला
है। धोती, कुर्तक और उष्णीष पहने है। गौतमी की आयु सत्रह-अठारह वर्ष की
है। वह मातृहीना है। साधारण सुंदरियों से अधिक सुंदर है।
गले में सोने के हार के अतिरिक्त और कोई अलंकार शरीर पर नहीं है। एक रंग की कंचुकी और दूसरे रंग की साड़ी पहने है। दोनों नंगे पैर हैं। पीछे-पीछे बोझ ढोनेवाले कुछ श्रमिक हैं, जो पीठ पर पोटलियाँ कसे हैं। समय:दिन।]
गौतमी: मैं तो थक गई हूँ, पिताजी ! कितनी दूर और है अब जयस्थविर का विहार ?
कंदर्पकेतु: आधा कोस ही तो रह गया है। आ गए, थोड़ा सा ही और चलना है।
गौतमी: रथ से चले चलते तो अच्छा रहता।
कंदर्पकेतु: महाचैत्य तीर्थ-स्थान है और महाचैत्य का विहार भी तीर्थ के ही समान है। नंगे पाँव तीर्थ यात्रा करने से ही पुण्य की प्राप्ति होती है। रथ पर यात्रा करने से पुण्य क्षीण हो जाता है। कोस-आध कोस ही तो पैदल चले हैं। उस गाँव तक तो रथ से ही आए थे।
गौतमी: यहाँ कुछ क्षण ठहर जाइए। कैसे सुंदर वृक्ष, पक्षी और इधर-उधर हँसते-मुसकराते दूर्वादल हैं ! जान पड़ता है, जैसे पुण्य को बिखेर रहे हों।
[वे सब रुक जाते हैं। (श्रमिक बैठ जाते हैं।]
कंदर्पकेतु: विहार के जीवन में आत्मा के सौंदर्य की ओर मन को लगाना पड़ा है। बाह्य सौंदर्य वहाँ निरीक्षक है। अंतर्निहित सौंदर्य की भाषा में बोलो, बेटी।
गौतमी: मैंने भी पढ़ा है, पिताजी, वहाँ का जीवन जैसे सौंदर्यवाला होगा। यहाँ बाहरी प्रकृति का सहज-सरल लालित्य है। क्या विहार में इसके अवलोकन का निषेध है ?
कंदर्पकेतु: नहीं तो, बेटी। परन्तु उप संपदा लेने वाले को आत्मा की मंजुलता पर ध्यान को केन्द्रित करना पड़ता है। वहाँ के स्थविर और भिक्षु बतलाएँगे। वे जिस प्रकार के निग्रहों में रहते हैं उसी प्रकार तो रहना और बरतना पड़ेगा !
गौतमी: आप समुद्र-यात्रा कब करेंगे ?
कंदर्पकेतु: जैसे ही विहार के स्थविर ने तुम्हारा परीक्षण किया और उपसंपदा के हेतु तुमको विहार में प्रवेश मिला, मैं धान्यकटक चला जाऊँगा। वहाँ अपने बड़े यान और छोटे-बड़े पोत व्यवहार-सामग्री भरने के लिए प्रस्तुत मिल जाएँगे। बस, सामग्री भरी और चल दिया।
गौतमी: समुद्र में पवन के तीव्र होने पर यान के पाल भरकर ऐसे फूल जाते होंगे जैसे तूंबा ! यान की गति अति द्रुत हो जाती होगी !
कंदर्पकेतु: कंदुक की भाँति भागता जाता है।
गौतमी: उस समय यात्रियों को कैसा लगता होगा ?
कंदर्पकेतु: तुम कृष्णा नदी में यान पर बैठी तो हो अनेर बार !
गौतमी: समुद्र-यात्रा तो कभी नहीं की।
कंदर्पकेतु: उपसंपदा लेने के उपरांत जब तुमको भिक्षुणी का पद प्राप्त हो जाय और विहार के भिक्षु धर्म-प्रचार के लिए देश-देशांतर जावें, तब तुमको भी यात्रा करने के बहुत अवसर मिलेंगे।
गौतमी: वे कब निकलेंगे समुद्र-यात्रा करने के लिए ?
कंदर्पकेतु: सौम्य, कसेरू, यव, वारुण इत्यादि द्वीपों को मेरे यान आते-जाते हैं। मैं ही इन द्वीपों में से किसी एक में बुला लूँगा। वहाँ तुम धर्म-प्रचार करना।
गौतमी: कब ?
कंदर्पकेतु: अभी तो तुमने उपसंपदा ही नहीं ली है। ले लेने पर ही तो यह प्रश्न उठ सकेगा। भिक्षु कब पर्यटन के लिए निकलेंगे, इसका निश्चय तो वे ही करेंगे।
गौतमी: अब तो आ ही चुकी हूँ। कहीं आपके साथ पहले यात्रा कर आई होती तो कैसा अच्छा रहता !
कंदर्पकेतु: यदि इस प्रकार का कोई मोह या विकार मन के किसी कोने में हो तो लौट पड़ना चाहिए। ऐसी स्थिति में उपसंपदा को ग्रहण करना उचित नहीं होगा।
(दूसरी ओर मुँह फेरकर) तुम्हारी माता तुम्हें छुटपन में छोड़कर स्वर्गवास को सिधार गईं। एक तो तुम्हारे लिए मुझको कोई अच्छा वर नहीं मिला, दूसरी तुम्हारी भावना और रुचि को धर्म की ओर देखकर, अपना सारा काम छोड़कर चला आया। अब जैसी तुम्हारी इच्छा हो।
गौतमी: नहीं पिताजी, मैंने वैसे ही कहा। जब घर से निकल पड़े तो लौटना कैसा ! यहाँ चैत्य के दर्शन करेंगे, ऋषि नागार्जुन के पर्वत का भ्रमण करेंगे, विहार को देखेंगे, वहाँ उद्यान का प्रेक्षण...
कंदर्पकेतु: पर्वत का भ्रमण व्यर्थ होगा। वन-उपवन, पर्वत, वृक्ष, सरिता, सरोवर, बाह्य प्रकृति – सब स्थानों में व्यापक रूप से एक सी होती है। भूलना नहीं चाहिए कि तुम भ्रमण मात्र के लिए नहीं निकली हो, प्रत्युत भ्रमणशील मन को एकाग्र करने हेतु...
गौतमी: ऐसा ही है पिताजी, ऐसा ही है। आपने चार द्वीपों के अभी-अभी नाम गिनाए थे। इनके अतिरिक्त और भी कोई देश हैं, जहाँ भारतीयजन रहते होंगे ?
कंदर्पकेतु: हाँ-हाँ, चंपा एक और बड़ा भूखंड है। वहाँ तो भारतीयों का राज्य भी है।
गौतमी: चंपा में भी बौद्ध धर्म और संघ को मान्यता है ?
कंदर्पकेतु: अल्प मात्रा में ही है। तुम धर्म और विश्वास में दृढ़ हो जाओ। मेरे ही यानों के द्वारा यात्रा करना। मैं तब तक इतने स्वर्ण का संग्रह करूँगा कि स्थान-स्थान पर मठ और विहार बनवा दूँगा। वारूण द्वीप अपने कार्य का केंद्र रहेगा।
गौतमी: वारूण द्वीप क्या इन सबमें बड़ा है ? कैसा है वह द्वीप ?
कंदर्पकेतु: लगभग तीन कोस लंबा और इतने ही कोस चौड़ा है। असंख्य बड़ी-छोटी नदियाँ, बड़े-बड़े उत्तुंग पर्वत, विस्तृत सघन वन, जिनमें हाथी, सिंह, गैंडे इत्यादि अन्य पशु और बड़े सुन्दर मनोहर पक्षी, बहुत स्वर्ण, हीरे, माणिक-मुक्ता, कपूर, पारद, मिर्च, इलायची....
गौतमी: मैं इस द्वीप को अवश्य देखूँगी, पिताजी, अवश्य ही।
कंदर्पकेतु: हाँ-हाँ, देखना। पहले विहार में प्रवेश तो प्राप्त कर लो। उधर तुम नियम-संयम के साथ धर्म की शिक्षा में पारंगत होना, इधर में निश्चिंत और एकाग्र-मन होकर स्वर्ण और माणिक-मुक्ता का संग्रह करूँगा। तुमको पादतल यात्रा का फल मिलेगा और मुझको भी। अब चलो।
गौतमी: चलिए। वारुण द्वीप की यात्रा अवश्य करूँगी।
गले में सोने के हार के अतिरिक्त और कोई अलंकार शरीर पर नहीं है। एक रंग की कंचुकी और दूसरे रंग की साड़ी पहने है। दोनों नंगे पैर हैं। पीछे-पीछे बोझ ढोनेवाले कुछ श्रमिक हैं, जो पीठ पर पोटलियाँ कसे हैं। समय:दिन।]
गौतमी: मैं तो थक गई हूँ, पिताजी ! कितनी दूर और है अब जयस्थविर का विहार ?
कंदर्पकेतु: आधा कोस ही तो रह गया है। आ गए, थोड़ा सा ही और चलना है।
गौतमी: रथ से चले चलते तो अच्छा रहता।
कंदर्पकेतु: महाचैत्य तीर्थ-स्थान है और महाचैत्य का विहार भी तीर्थ के ही समान है। नंगे पाँव तीर्थ यात्रा करने से ही पुण्य की प्राप्ति होती है। रथ पर यात्रा करने से पुण्य क्षीण हो जाता है। कोस-आध कोस ही तो पैदल चले हैं। उस गाँव तक तो रथ से ही आए थे।
गौतमी: यहाँ कुछ क्षण ठहर जाइए। कैसे सुंदर वृक्ष, पक्षी और इधर-उधर हँसते-मुसकराते दूर्वादल हैं ! जान पड़ता है, जैसे पुण्य को बिखेर रहे हों।
[वे सब रुक जाते हैं। (श्रमिक बैठ जाते हैं।]
कंदर्पकेतु: विहार के जीवन में आत्मा के सौंदर्य की ओर मन को लगाना पड़ा है। बाह्य सौंदर्य वहाँ निरीक्षक है। अंतर्निहित सौंदर्य की भाषा में बोलो, बेटी।
गौतमी: मैंने भी पढ़ा है, पिताजी, वहाँ का जीवन जैसे सौंदर्यवाला होगा। यहाँ बाहरी प्रकृति का सहज-सरल लालित्य है। क्या विहार में इसके अवलोकन का निषेध है ?
कंदर्पकेतु: नहीं तो, बेटी। परन्तु उप संपदा लेने वाले को आत्मा की मंजुलता पर ध्यान को केन्द्रित करना पड़ता है। वहाँ के स्थविर और भिक्षु बतलाएँगे। वे जिस प्रकार के निग्रहों में रहते हैं उसी प्रकार तो रहना और बरतना पड़ेगा !
गौतमी: आप समुद्र-यात्रा कब करेंगे ?
कंदर्पकेतु: जैसे ही विहार के स्थविर ने तुम्हारा परीक्षण किया और उपसंपदा के हेतु तुमको विहार में प्रवेश मिला, मैं धान्यकटक चला जाऊँगा। वहाँ अपने बड़े यान और छोटे-बड़े पोत व्यवहार-सामग्री भरने के लिए प्रस्तुत मिल जाएँगे। बस, सामग्री भरी और चल दिया।
गौतमी: समुद्र में पवन के तीव्र होने पर यान के पाल भरकर ऐसे फूल जाते होंगे जैसे तूंबा ! यान की गति अति द्रुत हो जाती होगी !
कंदर्पकेतु: कंदुक की भाँति भागता जाता है।
गौतमी: उस समय यात्रियों को कैसा लगता होगा ?
कंदर्पकेतु: तुम कृष्णा नदी में यान पर बैठी तो हो अनेर बार !
गौतमी: समुद्र-यात्रा तो कभी नहीं की।
कंदर्पकेतु: उपसंपदा लेने के उपरांत जब तुमको भिक्षुणी का पद प्राप्त हो जाय और विहार के भिक्षु धर्म-प्रचार के लिए देश-देशांतर जावें, तब तुमको भी यात्रा करने के बहुत अवसर मिलेंगे।
गौतमी: वे कब निकलेंगे समुद्र-यात्रा करने के लिए ?
कंदर्पकेतु: सौम्य, कसेरू, यव, वारुण इत्यादि द्वीपों को मेरे यान आते-जाते हैं। मैं ही इन द्वीपों में से किसी एक में बुला लूँगा। वहाँ तुम धर्म-प्रचार करना।
गौतमी: कब ?
कंदर्पकेतु: अभी तो तुमने उपसंपदा ही नहीं ली है। ले लेने पर ही तो यह प्रश्न उठ सकेगा। भिक्षु कब पर्यटन के लिए निकलेंगे, इसका निश्चय तो वे ही करेंगे।
गौतमी: अब तो आ ही चुकी हूँ। कहीं आपके साथ पहले यात्रा कर आई होती तो कैसा अच्छा रहता !
कंदर्पकेतु: यदि इस प्रकार का कोई मोह या विकार मन के किसी कोने में हो तो लौट पड़ना चाहिए। ऐसी स्थिति में उपसंपदा को ग्रहण करना उचित नहीं होगा।
(दूसरी ओर मुँह फेरकर) तुम्हारी माता तुम्हें छुटपन में छोड़कर स्वर्गवास को सिधार गईं। एक तो तुम्हारे लिए मुझको कोई अच्छा वर नहीं मिला, दूसरी तुम्हारी भावना और रुचि को धर्म की ओर देखकर, अपना सारा काम छोड़कर चला आया। अब जैसी तुम्हारी इच्छा हो।
गौतमी: नहीं पिताजी, मैंने वैसे ही कहा। जब घर से निकल पड़े तो लौटना कैसा ! यहाँ चैत्य के दर्शन करेंगे, ऋषि नागार्जुन के पर्वत का भ्रमण करेंगे, विहार को देखेंगे, वहाँ उद्यान का प्रेक्षण...
कंदर्पकेतु: पर्वत का भ्रमण व्यर्थ होगा। वन-उपवन, पर्वत, वृक्ष, सरिता, सरोवर, बाह्य प्रकृति – सब स्थानों में व्यापक रूप से एक सी होती है। भूलना नहीं चाहिए कि तुम भ्रमण मात्र के लिए नहीं निकली हो, प्रत्युत भ्रमणशील मन को एकाग्र करने हेतु...
गौतमी: ऐसा ही है पिताजी, ऐसा ही है। आपने चार द्वीपों के अभी-अभी नाम गिनाए थे। इनके अतिरिक्त और भी कोई देश हैं, जहाँ भारतीयजन रहते होंगे ?
कंदर्पकेतु: हाँ-हाँ, चंपा एक और बड़ा भूखंड है। वहाँ तो भारतीयों का राज्य भी है।
गौतमी: चंपा में भी बौद्ध धर्म और संघ को मान्यता है ?
कंदर्पकेतु: अल्प मात्रा में ही है। तुम धर्म और विश्वास में दृढ़ हो जाओ। मेरे ही यानों के द्वारा यात्रा करना। मैं तब तक इतने स्वर्ण का संग्रह करूँगा कि स्थान-स्थान पर मठ और विहार बनवा दूँगा। वारूण द्वीप अपने कार्य का केंद्र रहेगा।
गौतमी: वारूण द्वीप क्या इन सबमें बड़ा है ? कैसा है वह द्वीप ?
कंदर्पकेतु: लगभग तीन कोस लंबा और इतने ही कोस चौड़ा है। असंख्य बड़ी-छोटी नदियाँ, बड़े-बड़े उत्तुंग पर्वत, विस्तृत सघन वन, जिनमें हाथी, सिंह, गैंडे इत्यादि अन्य पशु और बड़े सुन्दर मनोहर पक्षी, बहुत स्वर्ण, हीरे, माणिक-मुक्ता, कपूर, पारद, मिर्च, इलायची....
गौतमी: मैं इस द्वीप को अवश्य देखूँगी, पिताजी, अवश्य ही।
कंदर्पकेतु: हाँ-हाँ, देखना। पहले विहार में प्रवेश तो प्राप्त कर लो। उधर तुम नियम-संयम के साथ धर्म की शिक्षा में पारंगत होना, इधर में निश्चिंत और एकाग्र-मन होकर स्वर्ण और माणिक-मुक्ता का संग्रह करूँगा। तुमको पादतल यात्रा का फल मिलेगा और मुझको भी। अब चलो।
गौतमी: चलिए। वारुण द्वीप की यात्रा अवश्य करूँगी।
दूसरा दृश्य
[श्री पर्वत (नागार्जुन कोंडा) की उपत्यका। उत्तर-पश्चिम में कृष्णा नदी
पथरीले दुकूलों में होकर बह रही है। इधर-उधर सघन वृक्षावलि। श्री पर्वत की
उपत्यका में बौद्धों का महाचैत्य। उसके विराट वृक्षों के समूह में एक
बौद्ध विहार, पास ही एक उद्यान। बौद्ध विहार में नित्य-नियम के अनुसार
धार्मिक कार्य हो रहा है, जो बाहर से दिखलाई नहीं पड़ता है। (छायाभिनय
द्वारा प्रकट किया जाय) एक टीले के पीछे से अश्वतुंग अपने मित्र गजमद तथा
अनेक साथियों सहित आता है। सब सशस्त्र हैं। घोड़ों को कुछ दूर छोड़ आए
हैं, जिनकी चापों का शब्द उनके प्रवेश के पहले होता है। अश्वतुंग की
अवस्था बीस-बाईस वर्ष की है। सुंदर आकृति का हृष्ट – पुष्ट युवा
है।
धवल धोती पहने है। शरीर पर कुर्तक, कवच, लौह पत्रक। कंधे पर धनुष और
बाण-तूणीर। गले में मुक्तमाल, कानों में मुक्तमाल, कानों में कुंडल,
भुजाओं पर वलय, कलाइयों में स्वर्ण के कड़े, पैरों में उपानह। मूँछें पतली
और छोटी हैं, परन्तु सिरों पर थोड़ी मुड़ी हुईं। गजमद इसी अवस्था का
दुबला-लंबा पुरुष है। वेश यही। अश्वतुंग के सिर का उष्णीव रंगीन कौषेय का
है। गजमद की सूती रंगीन। गजमद उतने आभूषण नहीं पहने। उसके कानों में छोटे
कुंडल, गले में स्वर्ण की माला। साथियों के कानों में रजत कुंडल हैं। सबकी
कटि में खड्ग है और कंधों पर धनुष-बाण-तूणीर।
समय: रात्रि का पहला पहर।]
अश्वतंग: (अपने साथियों को रुक जाने का संकेत करते हुए) सुनो, यहाँ क्या हो रहा है ?
[सब रुककर सुनते हैं, अश्वतुंग का संकेत पाकर बढ़ते हैं।]
गजमद: (अश्वतुंग के पार्श्व में आकर) ऐसा ही क्या ! इतनी चुप्पी मारे क्यों चल रहे हो ? स्तब्ध सशस्त्रता संदेह को उत्पन्न करेगी। दिवस के गिराहीन गगन का सूर्य अपनी रश्मियों द्वारा बोलता है, निशा के नि:शब्द नभ का राकेश चंद्रिका की वाणी द्वारा अपनी पदचाप को प्रकट करता है और राकेश न हो तो तमिस्र में तार-
अश्वतुंग: ताड़ी पीकर ऊँघते हैं !
गजमद: तरुणी सदृश झिलमिलाते हैं।
अश्वतुंग: तुम कितने वाचाल हो ! यहाँ तो वाक्-संयम करो।
गजमद: वास्तव में मैं वाचाल नहीं हूँ। नदी के प्रवाह को जहाँ कहीं बाँध दिया जाता है, तब वह रुद्ध हो जाता है। फिर जब प्रचंड वर्षा के कारण प्रवाह में पूरा आता है, तब प्रशांत अवरूद्ध सरिता-सलिल बाँध को तोड़-फोड़कर बह पड़ता है। फलों से लदे वृक्ष झंझावत के झोंकों से झुककर प्रार्थियों को फलों का प्रसाद दे उठते हैं। यही मेरा स्वभाव है, राजकुमार। कितने समय में स्तब्धता के संकट को सहन करता चला आ रहा हूँ।
अश्वतुंग: हे भगवान् ! तुम्हारा अनुप्रास और स्वभाव, सब एक-से-एक बढ़कर विकट हैं। वह देखो, सामने से इस विहार का कोई जन आ रहा है। अब अपनी वाचालता के सरिता-सलिल को थोड़े समय के लिए नियंत्रण के बाँध में रुद्ध रखे रहो तो मेरे ऊपर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। विहार के द्वार पर पहुँचने वाले ही हैं।
गजमद: (होंठों पर उँगली रखकर) एवमस्तु। कुछ अनुप्रास तो आपको भी आया ! (हँसता है)
[अश्वतुंग संकेत से उसको चुप रहने के लिए सावधान करता है। किसी के आने की आहट लेता है। जय स्थविर का प्रवेश। सिर मुँड़ाए, नंगे पैर। नारंगी रंग का ढीला वस्त्र कमर से नीचे पहने है। ऊपर कंचुकी। उसकी मुख-मुद्रा शांत गंभीर है। उम्र लगभग पचास वर्ष की होगी। वे सब उसको प्रणाम करते हैं। जय स्वस्ति कर उठता है।]
जय: आप सज्जन सभागतों का परिचय ?
गजमद: सभागत नहीं, अभ्यागत जैसाकि....
[अश्वतुंग कड़ी चितवन से निवारण करता है। गजमद चुप रह जाता है। जय निश्चलता के साथ उसकी ओर देखकर एक क्षण में सब पर दृष्टि घुमाता है, परंतु वह भयभीत नहीं है।]
अश्वतुंग: आचार्य, हम लोग प्रतिष्ठान को जा रहे हैं।
जय: आपको पथ-भ्रम हो गया है। यह गुरुवर आचार्य नागार्जुन का श्री पर्वत, नागार्जुन का कोंडा है। प्रतिषठान को यहाँ से बहुत चक्कर काटकर जाना पड़ेगा।
अश्वतुंग: यह जानते हुए भी हम आपके अतिथि हैं।
गजमद: यह धान्यकटक के पल्लव राजकुमार अश्वतुंग हैं। इनके पिता कुंडूकूर पितामह विख्यात शिवस्कंद वर्म्मा, प्रपितामह परम विख्यात कुमार विष्णु वीरकूर्च वर्म्मा और पितृव्य वर्तमान धर्म-महाराजाधिराज वीर वर्म्मा कलिंग, आंध्र और कांची के जनेश। नाग-वाकाटक कुल के प्रदीप। (अश्वतुंग व्यग्रता के कारण ‘उँह’ करके सिर नीचा कर लेता है) चोल नरेश के साथ अपने धर्म-महाराज का युद्ध होनेवाला है। हमलोग कार्यवश निकल पड़े हैं। दीर्घ यात्रा करके आ रहे हैं। मेरा नाम गजमद है। राजकुमार का दिया हुआ नाम। अब इसी से अभिहित और ख्यात हूँ। माता-पिता का दिया हुआ नाम है – उड्डुंग। गजमद नाम से कविता करता हूँ। पिता का नाम उत्पल, पितामाह का नाम उत्फुल्ल, प्रपितामह का नाम भंडभद्र। ये सब कवि ही नहीं, महाकवि थे। इनके काव्यों की प्रतिलिपि घर-घर में है और होनी चाहिए। मेरे वंशकर्ता वाकाटक सम्राटों के पूर्वज विंध्य शक्ति को अपने काव्य द्वारा प्रेरणा दिया करते थे। उनका निवास विंध्यखंड की कांचनिका नामक पुरी में था। परन्तु वे साकेत से आए थे। फिर मेरे पूर्वज राजकुमार के पूर्वजों के साथ कोशल में से होते हुए पधारे और मैं ...
अश्वतुंग: आचार्य, यह मेरे मित्र गजमद कवि होने के कारण कभी अधिक बोल जाते हैं। हम लोग रात भर के लिए आपके आश्रम में आश्रय चाहते हैं। प्रात:काल प्रयाण कर देंगे।
गजमद: (धीमे स्वर में, अश्वतुंग से) अनुप्रास बुरा नहीं रहा।
जय: (उसी गंभीर – शांत मुद्रा में) हमारी गाँठ में जो कुछ रूखा-सूखा है सो आपको भेंट कर दिया जाएगा। आपका स्वागत है। चलकर विश्रामशाला में ठहरिए।
गजमद: आचार्य, विहार में कीर्तन हो रहा है। प्रक्षालन के उपरांत हम लोग भी कीर्तन द्वारा पवित्र होने की कामना करते हैं।
जय: जैसी आपकी इच्छा। चलिए।
गजमद: फिर एक अत्यंत आवश्यक विषय पर आपसे बातचीत करनी है।
जय: (उसी गंभीरता के साथ) हमारे यहाँ भगवान की चर्चा के अतिरिक्त और किसी विषय का कविता पर कथोपकथन नहीं होता।
अश्वतुंग: एक और विषय है ! राष्ट्र की रक्षा से संबंध रखनेवाला।
गजमद: आप खिन्न मन न हों, मैं भी श्रृंगार रस की कविता महीने में दस-बीस दिन ही करता हूँ। शेष समय में मारदाह, शिव-पार्वती विवाह, कुमार-जन्म, ऋतुओं के वर्णन, वीर पुरुषों के आख्यान इत्यादि पर ही रचनाएँ करता हूँ। जब कभी श्रृंगार रस से अनुप्राणित होता हूँ तब बहुत कम...
[अश्वतुंग वर्जित करता है।]
जय: कीर्तन-सदन का मार्ग यह है। (इंगित करता है)
गजमद: विहार की व्याख्यान और तंत्र-प्रयोगशाला भी वहीं होगी। हमारा तंत्र-शास्त्र में विश्वास है। बड़ा उपयोगी शास्त्र है। यह विहार इसके लिए संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। ऋषि नागार्जुन ने अपनी सब क्रियाओं को इसी संस्थान में....
जय: (थोड़ा सा चलकर) अब आप विहार के द्वार पर आ गए हैं। प्रक्षालन के लिए जल यहीं आ जाएगा। द्वारपाल के हाथ भेजता हूँ। (जाता है)।
गजमद: (धीमे स्वर में) इस भिक्षु के मुँह पर इतने समय में एक बार भी तो मुस्कान नहीं आई !
अश्वतुंग: तुम्हारे सरीखे बकवादी भी तो नहीं है।
गजमद: नितांत रूखा, कविता से योजनों दूर। यह भी क्या जीवन है ! मैं यदि विहार का आचार्य होता तो इसको कोमलकांत कविता कामिनी के कोकिल कलरव से किलकिला देता। बिना सुगंधि का सुमन, स्मितहीन संपुट, रसरहित रसना, तेजहीन ओज, सौंदर्यहीन श्रृंगार, वंदनवार-विहीन वितान जैसे नीरस लगता है वैसे ही...
अश्वतुंग: चुप, चुप ! द्वारपाल आ रहा है।
[द्वारपाल जल-कलश और लोटा लेकर आता है।]
द्वारपाल: सज्ज्नों, इधर पधारने का कष्ट करें। प्रक्षालन के लिए स्थान इधर है।
तीसरा दृश्य
[स्थान: विहार का कीर्तन सदन। वीणा, मृदंग, मंजीर, तुंबु और स्वर-मंडल के साथ कीर्तन हो रहा है। सदन के एक और अविलोकितेश्वर बुद्ध की मूर्ति रखी हुई है। अश्वतुंग और उसके साथी आकर दूसरी ओर बैठ जाते है। अश्वतुंग और उसके साथी आकर दूसरी ओर बैठ जाते हैं। एक स्थान पर गौतमी और कंदर्पकेतु भी बैठे हैं। समय: रात्रि। ]
समय: रात्रि का पहला पहर।]
अश्वतंग: (अपने साथियों को रुक जाने का संकेत करते हुए) सुनो, यहाँ क्या हो रहा है ?
[सब रुककर सुनते हैं, अश्वतुंग का संकेत पाकर बढ़ते हैं।]
गजमद: (अश्वतुंग के पार्श्व में आकर) ऐसा ही क्या ! इतनी चुप्पी मारे क्यों चल रहे हो ? स्तब्ध सशस्त्रता संदेह को उत्पन्न करेगी। दिवस के गिराहीन गगन का सूर्य अपनी रश्मियों द्वारा बोलता है, निशा के नि:शब्द नभ का राकेश चंद्रिका की वाणी द्वारा अपनी पदचाप को प्रकट करता है और राकेश न हो तो तमिस्र में तार-
अश्वतुंग: ताड़ी पीकर ऊँघते हैं !
गजमद: तरुणी सदृश झिलमिलाते हैं।
अश्वतुंग: तुम कितने वाचाल हो ! यहाँ तो वाक्-संयम करो।
गजमद: वास्तव में मैं वाचाल नहीं हूँ। नदी के प्रवाह को जहाँ कहीं बाँध दिया जाता है, तब वह रुद्ध हो जाता है। फिर जब प्रचंड वर्षा के कारण प्रवाह में पूरा आता है, तब प्रशांत अवरूद्ध सरिता-सलिल बाँध को तोड़-फोड़कर बह पड़ता है। फलों से लदे वृक्ष झंझावत के झोंकों से झुककर प्रार्थियों को फलों का प्रसाद दे उठते हैं। यही मेरा स्वभाव है, राजकुमार। कितने समय में स्तब्धता के संकट को सहन करता चला आ रहा हूँ।
अश्वतुंग: हे भगवान् ! तुम्हारा अनुप्रास और स्वभाव, सब एक-से-एक बढ़कर विकट हैं। वह देखो, सामने से इस विहार का कोई जन आ रहा है। अब अपनी वाचालता के सरिता-सलिल को थोड़े समय के लिए नियंत्रण के बाँध में रुद्ध रखे रहो तो मेरे ऊपर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। विहार के द्वार पर पहुँचने वाले ही हैं।
गजमद: (होंठों पर उँगली रखकर) एवमस्तु। कुछ अनुप्रास तो आपको भी आया ! (हँसता है)
[अश्वतुंग संकेत से उसको चुप रहने के लिए सावधान करता है। किसी के आने की आहट लेता है। जय स्थविर का प्रवेश। सिर मुँड़ाए, नंगे पैर। नारंगी रंग का ढीला वस्त्र कमर से नीचे पहने है। ऊपर कंचुकी। उसकी मुख-मुद्रा शांत गंभीर है। उम्र लगभग पचास वर्ष की होगी। वे सब उसको प्रणाम करते हैं। जय स्वस्ति कर उठता है।]
जय: आप सज्जन सभागतों का परिचय ?
गजमद: सभागत नहीं, अभ्यागत जैसाकि....
[अश्वतुंग कड़ी चितवन से निवारण करता है। गजमद चुप रह जाता है। जय निश्चलता के साथ उसकी ओर देखकर एक क्षण में सब पर दृष्टि घुमाता है, परंतु वह भयभीत नहीं है।]
अश्वतुंग: आचार्य, हम लोग प्रतिष्ठान को जा रहे हैं।
जय: आपको पथ-भ्रम हो गया है। यह गुरुवर आचार्य नागार्जुन का श्री पर्वत, नागार्जुन का कोंडा है। प्रतिषठान को यहाँ से बहुत चक्कर काटकर जाना पड़ेगा।
अश्वतुंग: यह जानते हुए भी हम आपके अतिथि हैं।
गजमद: यह धान्यकटक के पल्लव राजकुमार अश्वतुंग हैं। इनके पिता कुंडूकूर पितामह विख्यात शिवस्कंद वर्म्मा, प्रपितामह परम विख्यात कुमार विष्णु वीरकूर्च वर्म्मा और पितृव्य वर्तमान धर्म-महाराजाधिराज वीर वर्म्मा कलिंग, आंध्र और कांची के जनेश। नाग-वाकाटक कुल के प्रदीप। (अश्वतुंग व्यग्रता के कारण ‘उँह’ करके सिर नीचा कर लेता है) चोल नरेश के साथ अपने धर्म-महाराज का युद्ध होनेवाला है। हमलोग कार्यवश निकल पड़े हैं। दीर्घ यात्रा करके आ रहे हैं। मेरा नाम गजमद है। राजकुमार का दिया हुआ नाम। अब इसी से अभिहित और ख्यात हूँ। माता-पिता का दिया हुआ नाम है – उड्डुंग। गजमद नाम से कविता करता हूँ। पिता का नाम उत्पल, पितामाह का नाम उत्फुल्ल, प्रपितामह का नाम भंडभद्र। ये सब कवि ही नहीं, महाकवि थे। इनके काव्यों की प्रतिलिपि घर-घर में है और होनी चाहिए। मेरे वंशकर्ता वाकाटक सम्राटों के पूर्वज विंध्य शक्ति को अपने काव्य द्वारा प्रेरणा दिया करते थे। उनका निवास विंध्यखंड की कांचनिका नामक पुरी में था। परन्तु वे साकेत से आए थे। फिर मेरे पूर्वज राजकुमार के पूर्वजों के साथ कोशल में से होते हुए पधारे और मैं ...
अश्वतुंग: आचार्य, यह मेरे मित्र गजमद कवि होने के कारण कभी अधिक बोल जाते हैं। हम लोग रात भर के लिए आपके आश्रम में आश्रय चाहते हैं। प्रात:काल प्रयाण कर देंगे।
गजमद: (धीमे स्वर में, अश्वतुंग से) अनुप्रास बुरा नहीं रहा।
जय: (उसी गंभीर – शांत मुद्रा में) हमारी गाँठ में जो कुछ रूखा-सूखा है सो आपको भेंट कर दिया जाएगा। आपका स्वागत है। चलकर विश्रामशाला में ठहरिए।
गजमद: आचार्य, विहार में कीर्तन हो रहा है। प्रक्षालन के उपरांत हम लोग भी कीर्तन द्वारा पवित्र होने की कामना करते हैं।
जय: जैसी आपकी इच्छा। चलिए।
गजमद: फिर एक अत्यंत आवश्यक विषय पर आपसे बातचीत करनी है।
जय: (उसी गंभीरता के साथ) हमारे यहाँ भगवान की चर्चा के अतिरिक्त और किसी विषय का कविता पर कथोपकथन नहीं होता।
अश्वतुंग: एक और विषय है ! राष्ट्र की रक्षा से संबंध रखनेवाला।
गजमद: आप खिन्न मन न हों, मैं भी श्रृंगार रस की कविता महीने में दस-बीस दिन ही करता हूँ। शेष समय में मारदाह, शिव-पार्वती विवाह, कुमार-जन्म, ऋतुओं के वर्णन, वीर पुरुषों के आख्यान इत्यादि पर ही रचनाएँ करता हूँ। जब कभी श्रृंगार रस से अनुप्राणित होता हूँ तब बहुत कम...
[अश्वतुंग वर्जित करता है।]
जय: कीर्तन-सदन का मार्ग यह है। (इंगित करता है)
गजमद: विहार की व्याख्यान और तंत्र-प्रयोगशाला भी वहीं होगी। हमारा तंत्र-शास्त्र में विश्वास है। बड़ा उपयोगी शास्त्र है। यह विहार इसके लिए संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। ऋषि नागार्जुन ने अपनी सब क्रियाओं को इसी संस्थान में....
जय: (थोड़ा सा चलकर) अब आप विहार के द्वार पर आ गए हैं। प्रक्षालन के लिए जल यहीं आ जाएगा। द्वारपाल के हाथ भेजता हूँ। (जाता है)।
गजमद: (धीमे स्वर में) इस भिक्षु के मुँह पर इतने समय में एक बार भी तो मुस्कान नहीं आई !
अश्वतुंग: तुम्हारे सरीखे बकवादी भी तो नहीं है।
गजमद: नितांत रूखा, कविता से योजनों दूर। यह भी क्या जीवन है ! मैं यदि विहार का आचार्य होता तो इसको कोमलकांत कविता कामिनी के कोकिल कलरव से किलकिला देता। बिना सुगंधि का सुमन, स्मितहीन संपुट, रसरहित रसना, तेजहीन ओज, सौंदर्यहीन श्रृंगार, वंदनवार-विहीन वितान जैसे नीरस लगता है वैसे ही...
अश्वतुंग: चुप, चुप ! द्वारपाल आ रहा है।
[द्वारपाल जल-कलश और लोटा लेकर आता है।]
द्वारपाल: सज्ज्नों, इधर पधारने का कष्ट करें। प्रक्षालन के लिए स्थान इधर है।
तीसरा दृश्य
[स्थान: विहार का कीर्तन सदन। वीणा, मृदंग, मंजीर, तुंबु और स्वर-मंडल के साथ कीर्तन हो रहा है। सदन के एक और अविलोकितेश्वर बुद्ध की मूर्ति रखी हुई है। अश्वतुंग और उसके साथी आकर दूसरी ओर बैठ जाते है। अश्वतुंग और उसके साथी आकर दूसरी ओर बैठ जाते हैं। एक स्थान पर गौतमी और कंदर्पकेतु भी बैठे हैं। समय: रात्रि। ]
कीर्तन का गीत
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
बुद्धं शरणं गच्छामि
झिलमिल झरप लगी,
एक दीप ने कितने दीप जगाए,
एक कमल ने कितने कमल खिलाए,
एक तार ने कितने तार बजाए,
एक बीज ने कितने विटप सजाए,
जनमत ज्योति जगी।
संघं शरणं गच्छामि
बुद्धं शरणं गच्छामि
झिलमिल झरप लगी,
एक दीप ने कितने दीप जगाए,
एक कमल ने कितने कमल खिलाए,
एक तार ने कितने तार बजाए,
एक बीज ने कितने विटप सजाए,
जनमत ज्योति जगी।
[कीर्तन की समाप्ति पर कीर्तन मंडली चली जाती है। उनमें से केवल जय, गौतमी
और कंदर्पकेतु रह जाते हैं।]
जय: अब आप सब भोजन कर लें।
[अश्वतुंग गजमद के अतिरिक्त अपने अन्य साथियों को हाथ के संकेत से हटाता है।]
अश्वतुंग: जब बुलाऊँ तब आ जाना।
[वे सब जाते हैं।]
अश्वतुंग: (जय से) आपके संगीत रसायन से हम लोग बहुत प्रभावित हुए हैं। अनेक विहारों में भगवान् की उपासना का यह प्रसाधन व्यवहार में लाते नहीं देखा। तांत्रिक-साधुओं का केंद्र होने के कारण ही संगीत का यहाँ इतना सुंदर उपयोग होता है।
[गौतमी उसकी ओर देखकर दूसरी दिशा में देखने लगती है।]
जय: आप किसी प्रसंग पर बात करना चाहते थे।
अश्वतुंग: हाँ, आचार्य। भोजन के उपरांत शयन का नियम। विहार की नियम-भक्ति और समय-निष्ठा को हम लोग जानते हैं, इसलिए भोजन के पूर्व इसी को उपयुक्त समझा।
जय: आपका प्रसंग ?
[गौतमी फिर अश्वतुंग की ओर देखने लगती है।]
अश्वतुंग: चोल-नरेश कांची के ऊपर आक्रमण करने वाला है। पूर्व युद्धों में द्रव्य का व्यय बहुत हो चुका है। अर्थ-कृच्छता आ गई है। स्वर्ण की बहुत आवश्यकता है।...
जय: विहार में स्वर्ण का क्या प्रयोजन ? आप तो जानते ही होंगे, अपरिग्रह हमारा पहला मंत्र है।
अश्वतुंग: आपकी सेवा में हम लोग स्वर्णमुद्राओं अथवा स्वर्णशिलाओं के निमित्त नहीं आए हैं। इनके लिए और व्यवस्था को ठीक करने के लिए लोग यहाँ से प्रतिष्ठान को यात्रा करेंगे। आप ज्ञानी और विज्ञानी हैं....
जय: अब आप सब भोजन कर लें।
[अश्वतुंग गजमद के अतिरिक्त अपने अन्य साथियों को हाथ के संकेत से हटाता है।]
अश्वतुंग: जब बुलाऊँ तब आ जाना।
[वे सब जाते हैं।]
अश्वतुंग: (जय से) आपके संगीत रसायन से हम लोग बहुत प्रभावित हुए हैं। अनेक विहारों में भगवान् की उपासना का यह प्रसाधन व्यवहार में लाते नहीं देखा। तांत्रिक-साधुओं का केंद्र होने के कारण ही संगीत का यहाँ इतना सुंदर उपयोग होता है।
[गौतमी उसकी ओर देखकर दूसरी दिशा में देखने लगती है।]
जय: आप किसी प्रसंग पर बात करना चाहते थे।
अश्वतुंग: हाँ, आचार्य। भोजन के उपरांत शयन का नियम। विहार की नियम-भक्ति और समय-निष्ठा को हम लोग जानते हैं, इसलिए भोजन के पूर्व इसी को उपयुक्त समझा।
जय: आपका प्रसंग ?
[गौतमी फिर अश्वतुंग की ओर देखने लगती है।]
अश्वतुंग: चोल-नरेश कांची के ऊपर आक्रमण करने वाला है। पूर्व युद्धों में द्रव्य का व्यय बहुत हो चुका है। अर्थ-कृच्छता आ गई है। स्वर्ण की बहुत आवश्यकता है।...
जय: विहार में स्वर्ण का क्या प्रयोजन ? आप तो जानते ही होंगे, अपरिग्रह हमारा पहला मंत्र है।
अश्वतुंग: आपकी सेवा में हम लोग स्वर्णमुद्राओं अथवा स्वर्णशिलाओं के निमित्त नहीं आए हैं। इनके लिए और व्यवस्था को ठीक करने के लिए लोग यहाँ से प्रतिष्ठान को यात्रा करेंगे। आप ज्ञानी और विज्ञानी हैं....
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book